नवभारत टाइम्स से साभार
[Thursday, August 16, 2007 01:59:29 am ]
दिलबर गोठी
नई दिल्ली : 2 साल पहले लागू सूचना के अधिकार का फायदा आम आदमी को अब भी पूरी तरह से नहीं मिल पा रहा है। हालांकि केंद्र सरकार के साथ-साथ दिल्ली सरकार भले ही दावा करे कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में लोगों को उनकी मांगी गई सूचनाएं उपलब्ध करा दी जाती हैं लेकिन कई मामलों में केवल लीपापोती की जाती है। केंद्र सरकार सूचना का अधिकार देने के मामले में कितनी गंभीर है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पिछले 1 साल में लोगों को इस अधिकार के बारे में सूचना देने में उसने 1 पैसा भी नहीं खर्च किया।
केंद्र सरकार के विज्ञापन डीएवीपी (विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय) द्वारा प्रसारित-प्रचारित किए जाते हैं। डीएवीपी ने 2006-07 के दौरान प्रिंट मीडिया को 109 करोड़ रुपये के विज्ञापन जारी किए। जाहिर है कि ये विज्ञापन विभिन्न नीतियों या घटनाओं को प्रचारित करने, लोगों को प्रोत्साहित करने या लोकहित में जारी किए जाते हैं। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी 100 करोड़ रुपये के विज्ञापन जारी किए गए। मगर, आप यह जानकर हैरान होंगे कि इनमें से कोई भी विज्ञापन ऐसा नहीं था जो लोगों को यह बताता हो कि वे सूचना के अधिकार के तहत कौन सी जानकारियां हासिल कर सकते हैं।
गौरतलब है कि पिछले 2 वर्षों में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर कई लोगों ने सरकारी विभागों को हिलाकर रख दिया। आरटीआई ऐक्टिविस्ट देवाशीष भट्टाचार्य का कहना है कि सरकार ने सूचना का अधिकार तो जनता को दे दिया लेकिन अभी वह इस मामले में गम्भीर नहीं है। ज्यादातर विभागों का यही प्रयास रहता है कि किसी न किसी तरह उन सवालों को टाला जाए जिसका जवाब वे नहीं देना चाहते। देवाशीष ने गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया कि यह बताया जाए कि दिल्ली पुलिस के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कुल कितनी शिकायतें आती हैं। मंत्रालय ने इसका कोई जवाब नहीं दिया और कहा कि हमारे पास इसका रेकॉर्ड नहीं है। संभव है कि दिल्ली पुलिस के पास यह रेकॉर्ड हो। इसलिए यह पत्र दिल्ली पुलिस के पास भेजा जा रहा है। दिल्ली पुलिस से जवाब आया कि उसके पास भी ऐसा कोई रेकॉर्ड नहीं। जाहिर है कि आम आदमी इस तरह का जवाब मिलने पर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाता। लेकिन देवाशीष अब इस सवाल के जवाब की तलाश में केंद्रीय सूचना आयोग के पास जाने वाले हैं।
दरअसल यह जानकारी भी देवाशीष के 29 मार्च को एक सवाल के जवाब में ही मिल पाई है कि केंद्र ने लोगों को सूचना के अधिकार के बारे में कितनी जानकारी दी है। उन्होंने 8 फरवरी 2007 को पूछा था कि आखिर लोगों को इस ऐक्ट की जानकारी देने के लिए 2006-07 में कितना पैसा खर्च किया गया। इसके लिए कब-कब अभियान चले। यह भी पूछा गया कि क्या राज्यों के मुख्य सचिवों को भारत सरकार की ओर से ऐसा कोई निर्देश जारी किया गया है जिसमें जिला मैजिस्ट्रेटों की मार्फत ऐसे अभियान चलाने का निर्देश दिया गया हो। देवाशीष का कहना है कि सोए हुए विभागों को जगाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों के लिए यह अच्छा ऐक्ट है लेकिन सरकार अभी इसमें खुलकर साथ नहीं दे रही है।
एक अन्य एक्टिविस्ट सुबोध जैन भी मानते हैं कि यह ऐक्ट बहुत अच्छा है लेकिन जो विभाग अपने आपको फंसता महसूस करते हैं, वे जानकारी देने से बचते हैं। मसलन, दिल्ली पुलिस को ही देख लीजिए। दिल्ली पुलिस के उत्तरी जिले के अधिकारी तो मांगी गई जानकारी तुरंत दे देते हैं लेकिन उत्तर-पूर्वी और पश्चिमी जिले के अधिकारी इससे बचते हैं। उनका यह भी कहना है कि आमतौर पर लोगों को ऐक्ट के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है और न जानकारी देने के लिए कोई अभियान चलाया जाता है। लोगों को यह भी नहीं पता कि अगर उनकी जवाब नहीं आया तो क्या किया जाए। आमतौर पर मांगी गई सूचना पर जवाब 30 दिन में आना चाहिए और सरकार की तरफ से बताया जाना चाहिए कि अगर जवाब नहीं आया या वह जवाब से संतुष्ट नहीं हैं तो अमुक अधिकारी से सम्पर्क कर सकते हैं। लेकिन ऐसी कोई सूचना सरकार की तरफ से नहीं भेजी जाती। सुबोध इसका एक उदाहरण भी देते हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार से आम्बेडकर कॉलेज में प्रिंसिपल की नियुक्ति के बारे में जानकारी मांगी। वह जानना चाहते थे कि क्या इसमें कोई अनियमितता बरती गई है। जब उन्हें जवाब भेजा गया तो वह इससे संतुष्ट नहीं हुए। नियमानुसार रजिस्ट्रार को इस बारे में अपीलीय अधिकारी माना जाना चाहिए लेकिन उन्होंने असंतुष्ट होने की शिकायत कॉलेज में ही भेज दी। कॉलेज के अपीलीय अधिकारी प्रिंसिपल ही हैं। अब वह अपने खिलाफ शिकायत कैसे सुन सकते हैं। इसलिए एक लेक्चरर को अपीलीय अधिकारी बना दिया गया। कोई भी व्यक्ति अपने वरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ शिकायत कैसे सुन सकता है और स्वाभाविक रूप से लेक्चरर ने पहले दिए गए जवाबों पर हस्ताक्षर कर वापस भेज दिए। अब यह सारा मामला केंद्रीय सूचना आयोग को भेजा गया है।
Wednesday, January 23, 2008
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